शीत शिशिर हेमन्त का, हुआ परम प्राधान्य ।
तैल, तूल, तपन का, सब जग में है मान्य ।।
जितने काल में पृथिवी सूर्य के चारों ओर परिक्रमा पूरी करती है, उस को एक सौर वर्ष कहते हैं ज्योतिषियों द्वारा १२ भाग कल्पित किए हुए हैं और उन १२ भागों के नाम उन-उन स्थानों पर आकाश में स्थित नक्षत्रपुञ्जों से मिलकर बनी हुई कुछ मिलती-जुलती आकृति वाले पदार्थों के नाम पर रख लिये गए हैं । यथा- १ मेष, २ वृष, ३ मिथुन, ४ कर्क, ५ सिंह, ६ कन्या, ७ तुला, ८ वृश्चिक, ९ धनु, १० मकर, ११ कुम्भ, १२ मीन । प्रत्येक भाग या आकृति राशि कहलाती है । जब सूर्य एक राशि से दूसरी राशि में संक्रमण करता है तो उसको संक्रान्ति कहते हैं । छः मास तक सूर्य उत्तर की ओर उदय होता रहा है । प्रत्येक छः मास तक दक्षिण की ओर निकलता रहता है । प्रत्येक षण्मास की अवधि का नाम अयन है । सूर्य के उत्तर की ओर उदय की अवधि को उत्तरायण और दक्षिण की ओर उदय की अवधि को दक्षिणायन कहते हैं । उत्तरायण में दिन बढता जाता है और रात्रि घटती जाती है, इसके विपरीत दक्षिणायन में रात लम्बी और दिन छोटा होता रहता है । सूर्य का मकर राशि में प्रवेश से उत्तरायण तथा कर्क राशि की संक्रान्ति से दक्षिणायन प्रारम्भ होता है ।
सूर्य के प्रकाश की अधिकता के कारण उत्तरायण का विशेष महत्व है, और उत्तरायण का प्रारम्भ मकर संक्रान्ति पर्व से ही होता है । इस दिन सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है । सम्पूर्ण भारतवर्ष में यह मकर संक्रान्ति पर्व बहुत ही उल्लास तथा विभिन्न रूपों में मनाया जाता है । प्रतिवर्ष जनवरी की १४ अथवा १५ तिथियों में यह पर्व मनाया जाता है । इस अवसर पर शीत अपने यौवन पर होता है । सूर्य का मकर राशि में प्राकृतिक प्रवेश को वैदिक ग्रन्थों में देवयान कहा गया है । बुद्धिमान व्यक्ति अपने शरीर त्याग की अभिलाषा इसी उत्तरायण में रखते हैं जैसे आजीवन ब्रह्मचारी भीष्म पितामह ने भी इसी उत्तरायण के आगमन तक शर–शैय्या पर मृत्यु की प्रतीक्षा की थी । क्योंकि इस उत्तरायण में देह त्यागने से शरीर में स्थित आत्मा सूर्य लोक में होकर प्रकाश मार्ग से प्रयाण करती है ऐसी मान्यता है । अतः ऐसा उत्तम समय पर्व बनने से कैसे पृथक रह सकता था इसलिये प्राचीन विद्वानों ने मकर संक्रान्ति ( सूर्य की उत्तरायण संक्रमण तिथि ) का पर्व निर्धारित कर दिया ।
इस पर्व पर शीत की अधिकता के कारण प्रायः सर्वत्र ठण्ड से बचने के उपाय किये जाते हैं । शास्त्रों में शीत से बचने के उपायों में तिल, तेल, तूल (रुई) बताये गये हैं जिनमें तिल सबसे प्रमुख है । यही कारण है कि मकर संक्रान्ति के सभी कृत्यों में तिलों के प्रयोग का विशेष महत्व है । पुराणों में कहा गया है–
तिलस्नायी तिलोद्वर्ती तिलहोमी तिलोदकी ।
तिलभुक् तिलदाता च षट्तिलाः पापनाशनाः॥
अर्थात् तिल मिश्रित जल से स्नान, तिल का उबटन, तिल का हवन, तिल का जल, तिल का भोजन और तिल का दान ये छह तिल के प्रयोग पापनाशक हैं । इसी कारण आज भी सर्वत्र तिल और गुड के लड्डू दान किये जाते हैं । इसके अतिरिक्त शीत निवारणार्थ कम्बल और घी का भी दान किया जाता है । “कम्बलवन्तं न बाधते शीतम्” अर्थात् कम्बलधारी को शीत का भय नहीं होता । घी भी ओज, तेज बढाने के साथ अग्निदीपक कहा गया है । अतः इस मकर संक्रान्ति के पावन पर्व पर हमें जरुरत मंद लोगों को दान करना चाहिये । मकर संक्रांति को आध्यात्मिक प्रथाओं के लिए भी महत्वपूर्ण माना जाता है तदनुसार लोग पवित्र नदियों में डुबकी लगाते हैं । ऐसा माना जाता है कि स्नान करने से पिछले पापों की क्षमा प्राप्त होती है । वे सूर्य की प्रार्थना भी करते हैं और अपनी सफलताओं और समृद्धि के लिए धन्यवाद देते हैं । भारत के अधिकांश भागों में यह अवधि रबी की फसल और कृषि चक्र के प्रारम्भिक चरणों का एक हिस्सा है । इस प्रकार यह सामाजिक मेलजोल का समय होता है और परिवार परस्पर संगति का आनन्द लेते हैं, मवेशियों की देखभाल करते हैं तथा अलाव के चारों ओर जश्न मनाते हैं, गुजरात में यह त्यौहार पतंग उड़ाकर मनाया जाता है । मकर संक्रांति एक महत्वपूर्ण अखिल भारतीय सौर त्यौहार है, जिसे अलग-अलग नामों से जाना जाता है,यथा आंध्र प्रदेश में पेड्डा पंडुगा मकर संक्रांति , कर्नाटक तेलंगाना और महाराष्ट्र में मकरसंक्रांति, तमिलनाडु में पोंगल, असम में माघ बिहू, मध्य और उत्तर भारत के कुछ हिस्सों में माघ मेला, पश्चिम में मकर संक्रांति, केरल में मकर संक्रांति या शंकरांति आदि नामों से जाना जाता है ।